Dec 31, 2009
The last post of the year
Maybe I am wrong. Your comments are welcome and yes once again, Happy New Year.
Dec 2, 2009
न जाने क्यूँ
छू न पाना चाँद को
उसकी खूबसूरती को बढ़ा जाता है,
कह न पाना उस बात को
उसकी एहमियत को जता जाता है,
और न जाने क्यूँ
मिलना तुमसे दो पल का,
दूरियों का एहसास दिला जाता है
Sep 19, 2009
आज़ादी
Sep 3, 2009
एक सवाल
Jul 9, 2009
उड़ान
जो आकाश को देखा
तो कितने ही आज़ाद पंछी दिखे
उड़ते हुए एक ऐसी उड़ान,
जिसका न कोई अंत था और न कोई शुरुआत,
न कोई क़दमों के निशाँ थे आसमान पर,
जिनपर उनको चलना पड़ता
न थी उम्मीद की बेडियाँ,
जो बांधती हो उनको लोगों के सपनों से
उनकी अपनी उड़ान
जो कहीं से मुझे कुछ इशारा सा करती थी
तो शाम ढल चुकी थी
और आसमान खाली था
मैं वहीँ ज़मीन पर,
अपने परों से अनजान
भीड़ में खोता जा रहा था ...
Jun 25, 2009
मुड़ कर न देखना
Jun 17, 2009
Love (continued from earlier post)
यादों के धागे में एक लम्हा पिरो कर रखा है,
अब इस से ज़्यादा हासिल क्या होगा ज़िन्दगी में ,
चाहा था जिसे उसको इस दिल में छुपा कर रखा है .
Jun 3, 2009
आखिरी बात
पर डरता हूँ,
अपनी कलम से आखिरी अल्फाज़ कैसे लिखूं ?
सोचता हूँ अब हर भरम को ख़तम कर दूँ
पर डरता हूँ ,
इन पन्नों पे उसका नाम कैसे लिखूं ?
May 31, 2009
The Great Recession
'Recession-' meaning 'going back' has become a buzzword these days and particularly in places like my campus where my batch is soon to face the placements. Everyone seems to be concerned about what will be their future in these turbulent times when the corporate world is bent on cutting down their existing staff and looking for lesser new recruits. People around are ready to compromise and let go of their dreams for anything that would provide some stability in these troubled times.
But aren't our situations a reflection of what we are? If we continue to be pessimistic and let our dreams recede along with the economy then surely it will require more than a Herculean effort to beat this recession.
All I want to say to anyone reading this post is that please don't let your dreams and aspirations recede. They may not be the only thing essential to emerge out of this dark cave but certainly they will act as a beacon to lead our ways. I am no expert on either economics or life; all I have to say is the way people react to circumstances is sometimes more important than the circumstances that caused the reaction.
May 22, 2009
ख्वाहिश
आंखों पे पट्टी बांधे ,
ख़ुद से अनजान विचारों की ऊँगली थामे,
तेरे इशारों पर भागा जा रहा था, बेवजह
अपनी ही सूरत को बिन पहचाने
ज़माने की आंखों को सच माने,
मन के आईने से बेपरवाह था किस तरह
अंधी दौड़ दौड़ रही ए तेज़-गाम ज़िन्दगी,
कुछ पल के लिए तेरी रफ़्तार खोना चाहता हूँ मैं,
ख्वाबों में नही,
यादों में नही,
आज बस इसी पल में जीना चाहता हूँ मैं
May 16, 2009
सपने
May 11, 2009
तुम आए
अपने इर्द-गिर्द
जाल बुनता रहा, उधाडता रहा
खालीपन के मानक से
संसार के
हर सागर की गहरायी भांपता रहा
उलझता जा रहा था ख़ुद के ही जाल में
खोता जा रहा था अपने ही सवाल में
कि तुम आए,
और धीरे धीरे आसमान से बादल हटने लगे
और चमका एक सितारा,
जिसकी रौशनी से मैंने ख़ुद को छुपा रखा था ,
मिली एक नई दृष्टि
जो पहले सी सीमित न थी,
पूरा तो नही हूँ मैं आज भी, मगर
तुम्हारे आने से
अधूरेपन का एहसास जाता रहा
May 8, 2009
रात
ए रात तुझसे मिलने का कोई बहाना ढूंढता हूँ
दुनिया की इस भीड़ में
एक मीत पुराना ढूंढता हूँ
ए रात तुझसे .......
जब यादों से बेचैन दिल को राहत आने लगे
और सपनो से बोझल पलकों पर नींद छाने लगे
तेरे आने के यही निशान ढूँढता हूँ
ए रात तुझसे मिलने का कोई बहाना ढूंढता हूँ
Apr 6, 2009
बोलती आँखें
कुछ न कह कर कह जाती हैं
कितना सब कुछ ये आँखें
मदहोशी के आलम को
ख्वाबों से सजाती ये आँखें
मन के हर अंधेरे को
राह दिखाती ये आँखें
हर उजले सवेरे को
शर्मसार करती ये आँखें
क्या क्या बोल जाती हैं एक इशारे से
टपका जो एक moti इनके किनारे से
दर्द की भी तड़प उठती हैं साँसे
बयां कर जाती हैं कभी ऐसे हालत ये आँखें
चाँद भी फीका पड़ गया है आज
जो चमक उठे हैं इनमें हजारों राज़
क्या इनमें एक दुनिया देख रहा हूँ मैं?
या जागते हुए सपने बुन रहा हूँ मैं?
सच है की दीवाना हो चला हूँ मैं
पर हर सच को झुट्लाती ये आँखें
कुछ न कह कर.........
Mar 31, 2009
Love
आ जाते हो ख्वाबों में तुम
बस याद करने की देर है
दरमियाँ हमारे ये फ़ासले तो
बस नज़रों का फेर हैं........
जब दुहरा दुहरा कर हर बात फीकी लगने लगती है
जो कहने को तो मुश्किल, पर समझ में सीधी लगती हैं
तब उन बातों का ध्यान आता है, और कहीं से
फिर उसका चेहरा, इस दिल पर छा जाता है ......
इन आंखों के नज़ारे अब मेरे बस में नही रहे
होंठों के लफ्ज़ सारे अब मेरे बस में नही रहे
हर आती जाती साँस पर बस तेरा नाम लेता हूँ
और लोग जिसे कहते हैं ख्वाब,
मैं तेरा दीदार कहता हूँ.....
Mar 28, 2009
क्या मैं चाहता हूँ तुझे??
क्या मैं चाहता हूँ तुझे ए मंजिल?
क्या इस दिल को तेरी ज़रूरत है?
ये तेरे करीब आने की खुशी है
या किसी अपने से बिछड़ने की आहट है?
मैं शायद नही जानता...
तुझे देखा है पर तेरी सूरत यादों से खो सी गई है
तुझे पाने की हसरत मन से फना सी हो गई है
तेरी तरफ़ जिन राहों पर बढ़ता रहा आजतक
वो राहें ही क्यों मेरी ज़िन्दगी अब हो गई हैं?
मैं शायद नही जानता...
राहों को पाकर ऐसा लगा मंजिल बेमानी है,
मंजिल तो है एक प्यास, पर राहें पानी हैं,
अब तो है इस दिल की यही आरजू,
बनकर राही ख्वाबों का कारवां लिए चलूँ
है मेरा खुदा आख़िर क्या चाहता ?
मैं शायद नही जानता...
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