Jul 9, 2009

उड़ान

आज बंद करके आँखें,
जो आकाश को देखा
तो कितने ही आज़ाद पंछी दिखे
उड़ते हुए एक ऐसी उड़ान,
जिसका न कोई अंत था और न कोई शुरुआत,
न कोई क़दमों के निशाँ थे आसमान पर,
जिनपर उनको चलना पड़ता
न थी उम्मीद की बेडियाँ,
जो बांधती हो उनको लोगों के सपनों से

बस आज़ादी थी और,
उनकी अपनी उड़ान
जो कहीं से मुझे कुछ इशारा सा करती थी

पर जब आँख खुली,
तो शाम ढल चुकी थी
और आसमान खाली था
मैं वहीँ ज़मीन पर,
अपने परों से अनजान
भीड़ में खोता जा रहा था ...

3 comments:

  1. nice one abhijit, I especially liked the lines, "jo baandhti ho unko .. logon ke sapno se" ... why there are so much expectations from the limited capabilites of a man .. or are they not that limited ??

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  2. gr8 one... main yeh soch raha hu ki main inhe itne dino se kyu nahi padh paya...

    this actually goes very true with our present circumstances ... jis raste pe chalna chahte hai us par chal nahi sakte.. sirf isliye.. ki manzil aur unke raaste pehle hi bana diye gaye hai..

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