ऐसा क्यों होता है कभी कभी कि
बातें शब्दों के जाल में उलझकर रह जाती हैं,
इरादे कोशिश के दायरे से निकल कर हकीकत को नही छू पाते हैं
सुबहें पलकों के परदों को पार कर आंखों से नही मिलती,
और आवाजें इन कानों को चीर कर दिल तक नही पहुँचती
क्यों हम खुली आंखों से सच को झुठलाते हैं और,
अपनी हालत का जिम्मेदार हालात को ठहराते हैं?
उम्दा लिखावट है.. वाकई
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