Jun 25, 2009

मुड़ कर न देखना


वक़्त के इशारे पे,

नदी के इस किनारे से,

रुख़सत तो पड़ रहा है तुम्हे करना

बस इतनी सी गुज़ारिश है मेरे दोस्त

इस तरफ़ मुड़ कर न देखना


जाते हुए क़दमों की आहट को मैं सुन लूँगा

चुप चाप शायद रो भी लूँ,

पर कुछ न कहूँगा

पर अपनी आंखों में आए तूफ़ान से,

मेरे सब्र के बाँध की ताक़त को न परखना

बस इसीलिए गुज़ारिश है मेरे दोस्त

अब कभी मुड़ कर न देखना

2 comments:

  1. a beautiful passionate creation...
    have read it so many times and I just wish I could memorize it..

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  2. ruhaani nazmo ki baat hi juda hoti hai.. termindously explained

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