कुछ न कह कर कह जाती हैं
कितना सब कुछ ये आँखें
मदहोशी के आलम को
ख्वाबों से सजाती ये आँखें
मन के हर अंधेरे को
राह दिखाती ये आँखें
हर उजले सवेरे को
शर्मसार करती ये आँखें
क्या क्या बोल जाती हैं एक इशारे से
टपका जो एक moti इनके किनारे से
दर्द की भी तड़प उठती हैं साँसे
बयां कर जाती हैं कभी ऐसे हालत ये आँखें
चाँद भी फीका पड़ गया है आज
जो चमक उठे हैं इनमें हजारों राज़
क्या इनमें एक दुनिया देख रहा हूँ मैं?
या जागते हुए सपने बुन रहा हूँ मैं?
सच है की दीवाना हो चला हूँ मैं
पर हर सच को झुट्लाती ये आँखें
कुछ न कह कर.........
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