Feb 22, 2013

अभी ज़रा देर पहले ही तो खामोश बैठा था
लगता था दुनिया की सारी चीखें भी
इसे सोच से जगा नहीं पाएंगी,
चाहे कितनी भी आंधियां आयें या जाएँ
इसकी नीली आँखों में कहीं खो कर रह जाएँगी,
फिर एकाएक किसी को पुकार कर टूट सा गया
और बहने लगी धारें चमकती हुयी आँखों से,
ये आसमां भी आजकल बहुत 'मूडी' हो गया है,
इस पर भी तुम्हारी संगत का असर आ रहा है...



Feb 9, 2013

शायरी

एक ठहरे हुए पल में रुक नहीं पाती है जो,
और बेचैन सी ढूंढती रहती है मायने
कभी पुरानी डायरी के पन्नों में,
और कभी कैलेंडर कि अगली तारीखों में
ये शायरी भी जिंदगी जैसा ही रोग है,
जो कभी मुकम्मल तो नहीं होती
पर पूरी ज़रूर होती रहती है...

Jan 11, 2013

परिंदे


इन सर्द रातों में कुछ परिंदे,
शहरों में,
दर बदर भटकते फिरते हैं
कांच की भट्ठियों में जलती आग,
उन्हें गर्मी नहीं देती
ढलता सूरज घरौंदों से,
उन्हें पुकारने की बजाय,
अँधेरी रात का खौफ़ दिलों में भर जाता है

छोड़ कर अपने गाँव चले आये थे जो,
कभी दाने की तलाश में,
या अपने घरों को गुम होता देख,
शहर के अज़गर की सांस में
वो परिंदे गुज़रते हैं अब
इन बर्फानी गलियों से नंगे पाँव
आँखों में एक ही सपना लिए
कि इन कंक्रीट के जंगलों में कहीं,
अपना भी एक घोंसला हो
और पंखों को भटकने अलावा,
ठहरने की भी आज़ादी मिले

Nov 30, 2012

ज़ख्म


जब वक्त की खरोंचों ने,
जिंदगी के पीतल से,
कहीं कहीं पर
सोने की परत को उतार दिया,
और दुनिया के सच को उभार दिया,
तब मन में सवाल आया कि
आखिर सच पर ये पानी चढाना क्यूँ ज़रुरी था?
क्या दुनिया के बाजार में,
हकीक़त को कोई खरीददार नहीं मिलता?
या उम्मीद थी ये कि
सोने को देख शर्म से पीतल सोना बन बैठता?
या दर्द के पूरे एहसास की खातिर
खुशी का एक अधूरा वहम ज़रुरी था?

मन अब भी
इन्ही सवालों में कहीं उलझा है,
और वो ज़ख्म
दुनिया की हवाओं से जूझ रहा है...

Oct 1, 2012

काश कि ये कलम भी बादलों सी होती,
जो बह जाती खुद-ब-खुद, 
जब दिल भारी हो पड़ता
पर इसकी तकदीर में 
शब्दों की मजबूरियां और 
दुनिया के grammar की शर्म लिखी है,
इसीलिए शायद,
इसके हिस्से की स्याही
आँखों को बहानी पड़ती है अक्सर...