जहाँ के कम-रोशन चेहरों की भीड़ में
खुलते हैं दो चमकते दरीचे नूर के,
जब कभी वो मुस्कुरा देते हैं
वो दो आँखें कुछ ऐसी लगती हैं जैसे,
सुबह की धूप में चमक रहीं हों
ओस की बूंदें पत्तों पर
वो ओस की बूंदें,
जिनकी उम्र भले ही एक पल ही क्यूँ न हों
पर उन्हें देखने की खातिर
सूरज सदियों से ज़मीन के फेरे लगा रहा है
बस इस उम्मीद में कि एक दिन
उस से आ मिलेंगी ये चाहत के बादलों पर सवार होकर...
खुलते हैं दो चमकते दरीचे नूर के,
जब कभी वो मुस्कुरा देते हैं
वो दो आँखें कुछ ऐसी लगती हैं जैसे,
सुबह की धूप में चमक रहीं हों
ओस की बूंदें पत्तों पर
वो ओस की बूंदें,
जिनकी उम्र भले ही एक पल ही क्यूँ न हों
पर उन्हें देखने की खातिर
सूरज सदियों से ज़मीन के फेरे लगा रहा है
बस इस उम्मीद में कि एक दिन
उस से आ मिलेंगी ये चाहत के बादलों पर सवार होकर...
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