Mar 5, 2014

मुसाफिर

अपने ज़हन के झोले में जाने किस तरकीब से
इरादों की इमारतें रखकर चलता हूँ
कुछ एक ख्याल के रास्ते भी हैं
जो इसमें यूँ ही फिट हो जाते हैं
और ले आता हूँ साथ तुम्हे भी,
यादों की गठरी में बांधकर,
बस कहने को ये मुंबई है और वो दिल्ली थी,
पर अपने शहर तो मैं साथ लिए फिरता हूँ...

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