अपने ज़हन के झोले में जाने किस तरकीब से
इरादों की इमारतें रखकर चलता हूँ
कुछ एक ख्याल के रास्ते भी हैं
जो इसमें यूँ ही फिट हो जाते हैं
और ले आता हूँ साथ तुम्हे भी,
यादों की गठरी में बांधकर,
बस कहने को ये मुंबई है और वो दिल्ली थी,
पर अपने शहर तो मैं साथ लिए फिरता हूँ...
इरादों की इमारतें रखकर चलता हूँ
कुछ एक ख्याल के रास्ते भी हैं
जो इसमें यूँ ही फिट हो जाते हैं
और ले आता हूँ साथ तुम्हे भी,
यादों की गठरी में बांधकर,
बस कहने को ये मुंबई है और वो दिल्ली थी,
पर अपने शहर तो मैं साथ लिए फिरता हूँ...
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