जब वक्त की खरोंचों ने,
जिंदगी के पीतल से,
कहीं कहीं पर
सोने की परत को उतार दिया,
और दुनिया के सच को उभार दिया,
तब मन में सवाल आया कि
आखिर सच पर ये पानी चढाना क्यूँ ज़रुरी था?
क्या दुनिया के बाजार में,
हकीक़त को कोई खरीददार नहीं मिलता?
या उम्मीद थी ये कि
सोने को देख शर्म से पीतल सोना बन बैठता?
या दर्द के पूरे एहसास की खातिर
खुशी का एक अधूरा वहम ज़रुरी था?
मन अब भी
इन्ही सवालों में कहीं उलझा है,
और वो ज़ख्म
दुनिया की हवाओं से जूझ रहा है...
यही सच्चाई है ।
ReplyDeletepar sacchai par sawaal uthana bhi zaruri hai...
DeleteAwesomely written Shukla Ji. very nice.
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