मैं अक्सर कुछ कम बोलता हूँ,
इसलिए मेरे बोल अक्सर मुझ तक ही रह जाते हैं
किसी बंद मुट्ठी में क़ैद कुछ राज़ों की तरह...
अगर तुम कभी ये मुट्ठी खोलती
तो तुम्हे मालूम पड़ता
कि किसी तितली की तरह कैसे ये बोल
तुम्हारे आस पास मंडरा सकते थे
और शायद,
तुम्हारे सुर्ख होंठों से एक कतरा चुराकर
वख्त और जगह के धागों से आज़ाद हो जाते ये बोल
तब तुम कभी किसी किनारे पर कोई
'शेल' उठाकर कानों तक लाती तो
तुम्हे मेरी आवाज़ में अपना नाम सुनाई पड़ता
इसलिए मेरे बोल अक्सर मुझ तक ही रह जाते हैं
किसी बंद मुट्ठी में क़ैद कुछ राज़ों की तरह...
अगर तुम कभी ये मुट्ठी खोलती
तो तुम्हे मालूम पड़ता
कि किसी तितली की तरह कैसे ये बोल
तुम्हारे आस पास मंडरा सकते थे
और शायद,
तुम्हारे सुर्ख होंठों से एक कतरा चुराकर
वख्त और जगह के धागों से आज़ाद हो जाते ये बोल
तब तुम कभी किसी किनारे पर कोई
'शेल' उठाकर कानों तक लाती तो
तुम्हे मेरी आवाज़ में अपना नाम सुनाई पड़ता
achhi kavita
ReplyDeleteshuriya gajadhar sahab!
Deletebohot hi pyari aur marmik kavita ki rachna ki hai aapne.. :)
ReplyDeleteशुक्रिया सिमरनजी :)
Deleteबहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteधन्यवाद :)
Deleteउम्दा..
ReplyDeleteधन्यवाद!
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