सुना था कभी कि इंसान मिट्टी से बना है
इसीलिए शायद इसे मिट्टी से इतना लगाव है
कि आसमां के फैलाव की बजाय
ये मिट्टी की लकीरों में अपनी पहचान ढूँढता है
और रहता है तैयार मिट्टी में मिलाने को
उन सबको जो इसकी मिट्टी के दायरे के उस पार रहते हैं
सचमुच इंसान मिट्टी का ही बना होगा
वर्ना एक धड़कता दिल इतना बेपरवाह कैसे हो सकता है
(Photo Source: http://www.flickr.com/photos/danhacker/4305416079/lightbox/)
achhi kavita ke liye aabhar
ReplyDeleteshukriya gajadhar sahab!
Deleteसचमुच इंसान मिट्टी का ही बना होगा
ReplyDeleteवर्ना एक धड़कता दिल इतना बेपरवाह कैसे हो सकता है
...बहुत सुन्दर और सार्थक रचना...
प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद सर!
Deleteसही कहा है..
ReplyDeleteI like the last couple of lines the most...
ReplyDeletethnx! personally, on a re-read, i like the lines where we identify ourselves with lines on the earth instead of the vastness of the sky :)
Deleteअभिजीत जी बिल्कुल सही कहा । संयोग है कि मेरी कविता में भी लगभग ऐसे ही भाव हैं ।
ReplyDeleteहमारे आस पास की समस्याएँ दिखने में तो कई हैं पर इनकी जड़ें कुछ गिनी चुनी हैं. जब थोड़ी सी सोच की कुल्हाड़ी चलाइए तो अमूमन एक ही जड़ से जा टकराती है...
Deleteजड़ें मिट्टी में होती हैं न.....
ReplyDeleteउनसे विलग कैसे हुआ जाय भला???
सुन्दर अभिव्यक्ति
अनु
ये माना की जड़ें मिट्टी में होती हैं, पर इसका मतलब ये नहीं की जिस मिट्टी में मेरी जड़ें हैं मेरे लिए सिर्फ वही मिट्टी महत्त्व रखे. अगर मिट्टी से जुडना है तो उसको बांटकर देखना कहाँ तक सही है...
Deleteप्रोत्साहन के लिए शुक्रिया.
Nicely done
ReplyDeletethanks :)
DeleteProfound.
ReplyDeleteKeep posting!
thanks for the encouragement!
Deleteपूरी रचना बहुत ही खूब.कुछ भी छोड़ दूं तो नाइंसाफी होगी.
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी.....!!!
ReplyDeleteकभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
संजय भास्कर
शब्दों की मुस्कुराहट
http://sanjaybhaskar.blogspot.com