Nov 30, 2012

ज़ख्म


जब वक्त की खरोंचों ने,
जिंदगी के पीतल से,
कहीं कहीं पर
सोने की परत को उतार दिया,
और दुनिया के सच को उभार दिया,
तब मन में सवाल आया कि
आखिर सच पर ये पानी चढाना क्यूँ ज़रुरी था?
क्या दुनिया के बाजार में,
हकीक़त को कोई खरीददार नहीं मिलता?
या उम्मीद थी ये कि
सोने को देख शर्म से पीतल सोना बन बैठता?
या दर्द के पूरे एहसास की खातिर
खुशी का एक अधूरा वहम ज़रुरी था?

मन अब भी
इन्ही सवालों में कहीं उलझा है,
और वो ज़ख्म
दुनिया की हवाओं से जूझ रहा है...

Oct 1, 2012

काश कि ये कलम भी बादलों सी होती,
जो बह जाती खुद-ब-खुद, 
जब दिल भारी हो पड़ता
पर इसकी तकदीर में 
शब्दों की मजबूरियां और 
दुनिया के grammar की शर्म लिखी है,
इसीलिए शायद,
इसके हिस्से की स्याही
आँखों को बहानी पड़ती है अक्सर...

Sep 18, 2012

Compilation of random lines

1. कितने भी करीने से सजा लो ज़हन की दुनिया,
    उसकी आँखों की फ़कत दो बूंदें सब उलझा देती हैं...
    (#Delhi Rains)

2. किस किस को अपनी बर्बादियों का ज़िम्मा दूँ,
    कुछ माहौल खराब थे कहीं
    कुछ मैं भी बुरा हूँ ....

3. फुर्सत है होती तब उलझ जाता हूँ अपनी जिंदगी में मैं
    पर जब जिंदगी फुर्सत नहीं देती तो चाँद बहुत प्यारा लगता है...

4. जब आखिरी बार मुड कर देखा तो कमरा खाली था
    पर क्या छोड़ जा रहा हूँ यहाँ इसका कुछ हिसाब नहीं बनता...
    (last update from XL)

5. पेड़ की टहनियों में उलझ कर चाँद, आज मेरी खिडकी के पास ही रुक गया
    मैं ये समझा की मेरी ही तरह वो भी, अपनी राह से भटक गया...

Sep 11, 2012

जंजीरों में कुछ अलग सा सुकून होगा,
जो आज़ादी की चाहत के दर्द को भुला देती हैं
भीड़ में भी कुछ अजीब ही राहत होगी,
जो अपने वुजूद की टीस को छुपा देती है,
मज़हब और मुल्क भी खुदा ने ही बनाये होंगे,
जो इंसान होने के भरम को मिटा देते हैं...

Jul 16, 2012

यादों का जिन्न


एक अलसाई सी शाम को
यादों के एक चिराग पर उंगलियां जो घुमायीं तो
तो एक बीते ज़माने का जिन्न निकल आया
और पूछ बैठा कि क्या हुक्म है मेरे आका?

"कहो तो ले जाऊं एक ऐसी दुनिया में जहाँ फिक्र का नाम न हो
और रातों को हँसते खेलते सुबहों से मिलने के सिवा कुछ काम न हो
जहाँ घंटे पलों में और बरस दिनों में सिमट जाएँ
और अंत में रह जाए बस एक लम्हे कि पूरी जिंदगी"

"या ले चलूँ उस गंगा के शहर में जहाँ सब अपने से लगते थे
या मिलवा दूँ उस शख्स से एक बार फिर
जिसकी आँखों में हज़ारों सपने से रहते थे "

कुछ हैरान सा था ये देखकर मैं
कि आज भी वो दिन इस चिराग में क़ैद हैं
और अब भी ये बंधन एक पल में कैसे
मुझे आज़ाद कर जाते हैं

फिर ये सोचकर उस चिराग को दिल के किसी कोने में रख दिया
कि किसी अँधेरी रात को शायद फिर काम आ जाएगा...


Feb 22, 2012

तस्वीरें

Almost two amazing years at XL are about to end. Saw the Learning Center in the evening today and was reminded of a pic of the same in the admissions brochure. This poem is dedicated to the awesome place called XLRI.

मैं तुम्हे कभी बस तस्वीरों से जानता था
देखता था तुमको और तुम्हारे रंगों पर आश्चर्य करता था
कि क्या हकीकत तस्वीरों के सपनों जैसी हो सकती है?

फिर एक दिन तुम हकीकत बन गए
और तुमसे मिलकर जाना कि तस्वीरें कितनी अधूरी हैं
उजाले और अंधेरों के कितने रंग हैं
जो इनमें समा ही नहीं सकते

और अब मुझे खुद से मिलाकर
थोड़ा सा जिंदगी का एहसास कराकर तुम
फिर उन्ही तस्वीरों में गुम होने वाले हो
तस्वीरों से तस्वीरों तक का सफर भी कितना खूबसूरत और अजीब होता है...