कुछ अधूरा सा, कुछ अपना सा
तेरा सपना कल रात, इन आँखों में सिमट गया
रात की तरह ही ये मन भी अँधेरे में था
एक जुगनू की तरह वो मुझमें चमक गया
अब भला इस खूबसूरत मुलाक़ात को मैं ख्वाब कैसे कहूँ?
जब एक अनकहे पल में तू मेरी हकीकत बन गया …
बहुत दूर आ चुका है अब इंसान
हैरत है होती अब कि मंज़िल कहाँ थी
चाँद पर कदम जमाये तो एक अर्सा गुज़र गया
ख्याल भी नहीं अब कि ज़मीन कहाँ थी
अपने हालातों को मजबूरियों का नाम दे दिया
याद नहीं आता है अब कि चाहत क्या थी
मुल्क और मज़हब का नुमा इन्दा बना है हर शख्स
इन लोगों की भीड़ में इंसानियत कहाँ थी
काश की कभी रुक कर सफ़र पर सोचा होता
पर इस अंधी दौड़ में इतनी सी भी फुर्सत कहाँ थी