काश कि ये कलम भी बादलों सी होती,
जो बह जाती खुद-ब-खुद,
जब दिल भारी हो पड़ता
पर इसकी तकदीर में
शब्दों की मजबूरियां और
दुनिया के grammar की शर्म लिखी है,
इसीलिए शायद,
इसके हिस्से की स्याही
आँखों को बहानी पड़ती है अक्सर...
जो बह जाती खुद-ब-खुद,
जब दिल भारी हो पड़ता
पर इसकी तकदीर में
शब्दों की मजबूरियां और
दुनिया के grammar की शर्म लिखी है,
इसीलिए शायद,
इसके हिस्से की स्याही
आँखों को बहानी पड़ती है अक्सर...