एक अलसाई सी शाम को
यादों के एक चिराग पर उंगलियां जो घुमायीं तो
तो एक बीते ज़माने का जिन्न निकल आया
और पूछ बैठा कि क्या हुक्म है मेरे आका?
"कहो तो ले जाऊं एक ऐसी दुनिया में जहाँ फिक्र का नाम न हो
और रातों को हँसते खेलते सुबहों से मिलने के सिवा कुछ काम न हो
जहाँ घंटे पलों में और बरस दिनों में सिमट जाएँ
और अंत में रह जाए बस एक लम्हे कि पूरी जिंदगी"
"या ले चलूँ उस गंगा के शहर में जहाँ सब अपने से लगते थे
या मिलवा दूँ उस शख्स से एक बार फिर
जिसकी आँखों में हज़ारों सपने से रहते थे "
कुछ हैरान सा था ये देखकर मैं
कि आज भी वो दिन इस चिराग में क़ैद हैं
और अब भी ये बंधन एक पल में कैसे
मुझे आज़ाद कर जाते हैं
फिर ये सोचकर उस चिराग को दिल के किसी कोने में रख दिया
कि किसी अँधेरी रात को शायद फिर काम आ जाएगा...